ज़नाब
मेरे हिसाब से तो यह एक तरह की भद्र हिंसा ही कही जायेगी,
जो कि पहले हमारे समाज के जमींदारों-जागीरदारों के शक्तिवान होने की परिचायक हुआ
करती थी। तब के समय में गाली समाज में सामर्थ्य की गैर-बराबरी को दर्शाती थी। पर
अब वही जागीरदारना अहंकार चारों ओर इफ़रात हो गया है। अतः अब सब जागीरदार ही हो गए हैं।
“गाली तो अहंकार की तुष्टि की अभिव्यक्ति है”। इसलिए जिस तरह पिछले वर्षों में
व्यक्ति का अहंकार बढ़ा, गालियों की
तादाद में भी इजाफ़ा हो गया है। मेरी एक बात समझ में नहीं आती कि क्या हमारे पास
शब्दों का टोटा पड़ गया है, जो हम अपनी बात
को सीधे-साधे ढंग से नहीं कह पाते और ‘अपशब्दों’
का प्रयोग करके अपनी बात कहते हैं। अब ये तो एक तरह से दिमाग का दिवालियापन ही कहा
जाएगा।
अब
इस बात पर कुछ लोग ये कहेंगे कि “इधर फिल्मों में भी तो गालियाँ का प्रचलन चल गया है”!
तो भाई आज का समाज जिस तरह से चल रहा है,
उसी तरह से फिल्मों के लिए कहानियां भी गढ़ी
जाती हैं। अब इसमें गलत वो कहां से हो गए,
गलत तो आप कर रहे हैं।
आज
हमारे समाज का कोढ़ बन चुकी इस आदत को हमें बदलना होगा। भई मुझे तो ऐसी ‘लैंगिग
हिंसा’ की आदत डालना कतई पसंद नहीं,
अगर आप में पनप चुकी है ये महामारी तो जितनी जल्दी हो सके इसे बदलने की कोशिश
करिए। आपके बात करने का ये अंदाज़ कहीं से भी ठीक नहीं हो सकता।
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