यह है शहर–ए–अदब 'हमारा फैज़ाबाद'
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मंगलवार, 1 नवंबर 2016
सोमवार, 2 सितंबर 2013
बाबाओ से वशीभूत होने की रुग्ण मनोवृत्ति : ‘बाबा-फिलिया’
बाबाओ से
वशीभूत होने की रुग्ण मनोवृत्ति : ‘बाबा-फिलिया’
‘रुग्ण-मनोरक्षा
युक्ति’ ले जाती
है ‘बाबा-फिलिया’ की तरफ : मनदर्शन रिपोर्ट
दिनोदिन तेजी से बढ़ता हुआ ‘बाबा
बाजार’ लोगों
की एक प्रकार की ‘रुग्ण-मनोरक्षा
युक्ति’ या
मानसिक दुर्बलता का ही उदाहरण है जिसे मनोविश्लेषण की भाषा में ‘बाबा-फिलिया’ या ‘बाबा-आसक्ति’ कहा जाता है | अदभुत कृपा, विशेष
कल्याण या सर्वबाधा हरण के नाम पे न केवल देशी बल्कि विदेशी भी ‘बाबा-फिलिया’ से
ग्रसित है | और वो उन बाबाओं की उँगलियों की
कठपुतली बन अपने स्वविवेक को दरकिनार कर उनको अलौकिक व दैवीय रूप में मान्यता
प्रदान कर रहे है |
मनोगतिकीय विश्लेषण :
मनोविश्लेषक डॉ. आलोक मनदर्शन के अनुसार मनुष्य की मानसिक प्रक्रियाओं से खेले जाने वाले
इस खेल में ये ‘बाबा’ कुछ भी
अदभुत या चमत्कारिक नहीं करते, बल्कि
मनुष्य का मन ही अवसाद, उन्माद, मनोआसक्ति
याओ.सी.डी. अथवा स्किज़ोफ्रिनिया रूपी ‘मनो-रुग्णता’ या ‘मनो-तनाव’ की स्थिति में ‘बाबा’ रूपी इस
आम इन्सान से इस प्रकार आसक्त हो जाता है कि वह उसकी मानसिक गुलामी करने लगता है | रही-सही कसर पूरी कर देता है, प्रायोजित
लोक लुभावन व हैरत अंगेज विज्ञापनों द्वारा इन बाबाओं का ग्लैमराईजेशन | दूसरा पहलु यह है कि मनुष्य के मन में एक सामूहिक अवचेतन ( कलेक्टिव सबकान्शस ) क्रियाशील होता है जिससे की लोग जनता की भीड़ को देख कर
स्वयं भी उस भीड़ का हिस्सा होने के लिए उतावले हो जाते है |
मनदर्शन-मिशन द्वारा
जारी इस रिपोर्ट के अनुसार इस समय अनुमानत: हजारो-करोणों का बाबा-बाजार सक्रिय है, हलाकि इसका बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी छिपा हुआ है |
मनदर्शन मिशन अन्वेषक डॉ. आलोक मनदर्शन के अनुसार मनुष्य की मानसिक प्रक्रियाओं से खेले जाने वाले
इस खेल की चपेट में पढ़े-लिखे, अनपढ़, अमीर-गरीब, महिला व
पुरुष सभी आते है, जो मन की गूढ़ प्रक्रियाओं से अनभिज्ञ
है और मानसिक तनाव व दबाव की अवस्था में है |
बचाव :
स्वस्थ व परिपक्व मन: स्थिति स्वस्थ मनोरक्षा युक्ति से चलायमान होती है जो मनुष्य को सम्यक-आस्था और आध्यात्मिकता की तरफ ले जाता है, जिससे मनोअंतर्दृष्टि का विकास होता है और मानसिक शान्ति और स्वास्थ में अभिवृद्धि होती है | जबकि दूसरी तरफ अपरिपक्व, न्यूरोटिक व साइकोटिक मनोरक्षा युक्तियाँ या ‘मेन्टल-डिफेन्स मैकेनिज्म’ जो की विकृत व रुग्ण होती है, मनो-अंतर्दृष्टि को क्षीण करते हुए ‘बाबा-फिलिया’ की तरफ ले जा सकती है |
स्वस्थ व परिपक्व मन: स्थिति स्वस्थ मनोरक्षा युक्ति से चलायमान होती है जो मनुष्य को सम्यक-आस्था और आध्यात्मिकता की तरफ ले जाता है, जिससे मनोअंतर्दृष्टि का विकास होता है और मानसिक शान्ति और स्वास्थ में अभिवृद्धि होती है | जबकि दूसरी तरफ अपरिपक्व, न्यूरोटिक व साइकोटिक मनोरक्षा युक्तियाँ या ‘मेन्टल-डिफेन्स मैकेनिज्म’ जो की विकृत व रुग्ण होती है, मनो-अंतर्दृष्टि को क्षीण करते हुए ‘बाबा-फिलिया’ की तरफ ले जा सकती है |
सोमवार, 29 जुलाई 2013
मानवीय संबंधो को तार-तार कर देने वाला मनोरोग ‘पैरानोइया’ : मनदर्शन मिशन
मानवीय संबंधो को तार-तार कर देने वाला मनोरोग ‘पैरानोइया’ : मनदर्शन मिशन
आप आए दिन ऐसी खबरों से अवश्य रूबरू होते होंगे जो कि मानवीय संबंधो को तार-तार कर देती है, जैसे की पति या पत्नी द्वारा एक दुसरे पर घोर अत्याचार व हिंसा, भाई द्वारा भाई की हत्या, माँ द्वारा बेटे-बेटी के प्रति या बच्चो द्वारा माँ-बाप के प्रति जानलेवा हमला, सास व बहु के बीच हिंसक वारदातें या अन्य पारिवारिक जघन्य हिंसक घटनाए | ऐसी घटनाएँ तो खबर का अहम् हिस्सा बनती है लेकिन इन घटनाओं के मुख्य कारक पहलू आम जनता के समक्ष उजागर नहीं हो पाते है |
मनदर्शन मिशन ने इन घटनाओं के पीछे ‘पैरानोइया’ नामक मनोरोग का होना बताया है | जनहित में जारी घरेलू हिंसा के अति महत्वपूर्ण व अनछुए पहलू का रहस्योघाटन करते हुए ' डॉ. आलोक मनदर्शन' ने बताया कि पैरानोइया एक ऐसा गंभीर मनोरोग है जिससे ग्रसित व्यक्ति अपने पूरे परिवार, पास पडोस व समाज के लोगों के प्रति इस प्रकार काल्पनिक नकारात्मक सोच बना लेता है जिससे उसके मन में अपने अत्यंत करीबी पारिवारिक रिस्तो व शुभचिंतकों के प्रति भी असुरक्षा का शक इस हद तक हावी होने लगता है कि वह आत्मरक्षा में किसी कि जान तक लेने पर उतारू हो जाता है या फिर घर छोड़ कर भाग जाता है |
कुछ मरीज तो अपनी जान के प्रति इस प्रकार खतरा महसूस करने लगते है कि उन्हें लगता है कि उनके सभी परिजन उनको जान से मारने की साजिश कर चुके है तो वह स्वयं को कमरे में बंद करके आत्मरक्षा में हमलावर हो जाता है और खाना-पीना बिल्कुल बंद कर देता है क्याकि उसे यह शक होता है कि खाने-पीने की सारी चीजों में साजिश के तहत जहर मिला दिया गया है इस प्रकार बिना खाये-पिये कमरे में बंद रहते हुए भुखमरी से उसकी मौत तक हो जाती है या वह आत्महत्या कर लेता है | इतना ही नहीं, इस बीमारी से ग्रसित ब्यक्ति बहुत आसानी से जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, दुआ-ताबीज, व अन्य कर्म-कांड के अन्धविश्वास में फंस कर कुछ भी कर जाते है, भले ही वे कितने ही पढ़े-लिखे क्यों न हो |
मनदर्शन हेल्पलाइन 09453152200 के अन्वेषक 'डॉ. आलोक मनदर्शन' ने अफ़सोस जाहिर करते हुए बताया कि दुर्भाग्य की बात यह है कि अधिकांशत: युवा अवस्था में ही इस बीमारी के लक्षण उभर कर सामने आते है और यही वह समय होता है जिस समय मरीज वैवाहिक सम्बन्धों में बंधता है |
इसका परिणाम यह होता है कि पत्नी द्वारा पति पर किया जाने वाला शक या पति द्वारा पत्नी पर किये जाने वाले शक को उसके सम्बंधित घरवाले उसकी बीमारी का लक्षण न समझ कर उसको सच मानने लगते है तथा मामला पुलिस व अदालत तक पहुँच जाता है व तलाक तक की नौबत आ जाती है | लेकिन यह समस्या का हल नहीं है क्योकि ऐसे में बीमार व्यक्ति की पहचान ही नहीं हो पाती है |
मरीज के इस नकारात्मक व्यवहार को परिवार व समाज के लोग भी इसे एक मनोरोग के रूप में न समझ कर मरीज के व्यवहार की प्रतिक्रिया के स्वरुप लड़ाई-झगडे के प्रति उतारू हो जाते है, जबकि जरुरत यह है कि ऐसे व्यवहार को तुरंत पहचान कर तत्काल इसका मानसिक उपचार करवाना चाहिए |
शुक्रवार, 26 जुलाई 2013
"डिसाइडो-फोबिया" से बचे छात्र व अभिभावक : मनदर्शन मिशन
"डिसाइडो-फोबिया" से बचे छात्र व अभिभावक : मनदर्शन मिशन
"कैरियर कांफ्लिक्ट" का ही हिस्सा है 'डिसाइडो-फोबिया' ! : मनदर्शन रिपोर्ट
कैरियर चुनने का समय
छात्र-छात्राओं तथा उनके अभिभावकों के लिए एक दुविधा व असमंज़स की स्थिति लेकर आती है | जो कि प्रतियोगी प्रवेश परीक्षाओं के
शरू होने से लेकर नतीजे आने तक ही नहीं, बल्कि किसी कैरियर विशेष में प्रवेश ले लेने के बाद तक भी बरकरार
रहती है|
विभिन्न कैरियर नतीजों में
सफल होने के बाद छात्र एक साथ कई कैरियर विकल्पों में दाखिला लेने के मानसिक द्वन्द
में रहते है,जिससे उनका मन एक बार किसी
एक कैरियर स्ट्रीम की ओर घुकाव पैदा करता है, तो दुसरे ही पल कोई दूसरी स्ट्रीम आकर्षक लगती है |
लगभग यही स्थिति अभिभावकों की भी होती है | रही-सही कसर पास-पड़ोस, या अन्य मिलने जुलने वालो की बिन मांगी
सलाह पूरी कर देती है| कुल मिलाकर
यह स्थिति एक ऐसे मकडजाल के रूप में उलझ जाती है कि छात्र व अभिभावक ऐसे मानसिक द्वन्द
व तनाव से गुजरने लगते है| जिससे
उनमे गलत फैसला ले लेने का भय, असमंजस
व उलझन,
अनिद्रा, चिडचिडापन, सरदर्द तथा फैसला ले लेने के बाद पछतावे
के मनोभाव जैसे लक्षण उभर कर सामने आ सकते है| इस मनोदशा को "मनदर्शन मिशन" द्वारा "डिसाइडो-फोबिया"
( निर्णय लेने में भय ) के नाम से परिभाषित किया गया है|
दुष्परिणाम :-
इसका दुष्परिणाम यह होता है कि छात्र अपने समग्र मानसिक एकाग्रता
से अपने चुने हुवे कैरियर पर फोकस नहीं कर पाते है क्योकि उनकी मानसिक उर्जा का एक
बड़ा हिस्सा अनमनेपन या पछतावे में व्यर्थ होता रहता है | मनदर्शन हेल्पलाइन से संपर्क में आये
ऐसे तमाम छात्रों व अभिभावकों को "डिसाइडो-फोबिया" नामक इसी मानसिक द्वन्द
से ग्रसित होना पाया गया है |
बचाव :-
मनदर्शन
मिशन अन्वेषक 'डॉ.आलोक मनदर्शन' का कहना
है कि "डिसाइडो-फोबिया" से बचने के लिए जरूरत इस बात की है कि एक बार ले
लिए गए निर्णय को पूरी सकारात्मकता व स्वीकार्यता से आत्मसात किया जाए तथा मन में चलने
वाले अन्यथा व नकारात्मक मनोभावों व विचारों पर ध्यान न देकर पूरी लगन व चाहत से वर्तमान
निर्णय के क्रियान्वयन पर जुट जाना चाहिए| छात्र की
अभिरूचि एवं क्षमता का निरपेक्ष मूल्यांकन, संसाधनों
व परिस्थितियों से सामंजस्य, अति उत्साह व भावुकता में निर्णय
ले लेने से बचना, अभिभावकों द्वारा अपनी इच्छाओं को
छात्र पर जबरिया न थोपना व सम्यक निर्णय ले लेने के बाद नकारात्मक प्रतिक्रियाओं पर
ध्यान न देना | इस सुझावों पे अमल करने से
"डिसाइडो-फोबिया" से बचा जा सकता है|शनिवार, 13 जुलाई 2013
पी.टी.एस.डी. से ग्रसित है उत्तराखंड आपदा पीड़ित : मनदर्शन निदान
मनदर्शन मिशन द्वारा उत्तराखंड आपदा पीड़ित लोगों की मनोदशा
का अध्यन करने गये डॉ.आलोक मनदर्शन ने बताया कि अधिकान्श आपदा पीड़ित लोग शारीरिक
समस्याओं के अलावा मानसिक आघात जिसे पी.टी.एस.डी. ( पोस्ट ट्रामैटिक स्ट्रेस
डिसऑर्डर ) कहा जाता है, से ग्रसित है | यह मनोआघात ऐसी
मनोदशा होती है जिससे कि व्यक्ति के न चाहते हुए भी भयाक्रांत व बेचैन कर देने
वाली स्मृतियाँ उसके मन पर बार-बार इस तरह हावी हो जाती है कि वह चीखना-चिल्लाना, भागना व
अनाप-शनाप बकना जैसी असामान्य हरकते कर सकता है तथा घटना के बारे में बात करते
हुवे मूर्छित भी हो सकता है |
ऐसे लोगों की
नींद व भूख भी दुस्प्रभावित हो सकती है तथा सोते समय चौंक कर उठ सकते है तथा उनकी
धड़कन व सांस तीव्र हो जाती है तथा मुंह सूखने लगता है |
बचाव व उपचार :
ऐसे लोगों के परिजन व रिश्तेदार आपदा के दौरान घटित बातों को बताने के लिए मरीज़ को हतोत्साहित करे तथा ऐसे दृश्यों व अन्य उत्प्रेरको से मरीज़ को दूर रखे | साथ ही मरीज़ का ध्यान मनोरंज़क व अन्य गतिविधियों में लगाने की कोशिस करे जिससे की उसका आवेशित मन धीरे-धीरे उदासीन हो सके | वर्चुअल एक्सपोजर थिरेपी, डीसेंसिटाईजेशन थिरेपी व मेंटल कैथार्सिस ऐसे मरीजों के लिए बहुत ही कारगर है |
बुधवार, 26 जून 2013
‘अंतर्राष्ट्रीय मादक द्रव्य व्यसन व अवैध तस्करी रोधी दिवस’ (26 जून) : मनदर्शन रिपोर्ट
अंतर्निहित व्यक्तित्व-विकार व मनोरोग बनाता है समाज को नशाखोर : 'डॉ. आलोक मनदर्शन'
‘अंतर्राष्ट्रीय मादक द्रव्य व्यसन व अवैध तस्करी रोधी दिवस’ (26 जून) : मनदर्शन रिपोर्ट
‘व्यक्तित्व- विकार व मनोरोग’ रहित मन ही ‘नशा- रहित मन’ है | ‘अंतर्राष्ट्रीय मादक द्रव्य व्यसन व अवैध तस्करी रोधी दिवस’ (26 जून) हमें अपने मन का आत्मनिरीक्षण करके अपने व्यक्तित्व विकारों व मानसिक विकृतियो को सक्रिय रूप से पहचानने के उद्देश्य से पूरी दुनिया में मनाया जाता है |
यह दिन हमें अपने मन में मौजूद मानसिक व व्यक्तित्व-विकारों को सक्रिय रूप से पहचानने का समय है , जिससे की हमारा स्वस्थ व सुन्दर मानसिक पुनर्निर्माण हो सके जिससे की आज विश्व-व्यापी महामारी का रूप ले रहे नशे की लत के फलस्वरूप अराजकता ,हिंसा ,आत्महत्या , अनैतिकता , संवेदनहीनता एवं आपराधिक प्रवित्तियों से कुरूप हो चुका तथा मानसिक बीमारियों से पीड़ित विश्व समाज स्वस्थ व खूबसूरत बन सके | क्योंकि आज समूचे विश्व की दो-तिहाई आबादी किसी न किसी प्रकार के व्यक्तित्व-विकार व मानसिक-विकृति से ग्रसित हो चुकी है जिसकी परिणति अल्प, मध्यम व गंभीर नशाखोरी के रूप में हो रही है |
स्वस्थ व सुन्दर मन के वैश्विक मिशन के प्रति समर्पित ‘मनदर्शन-मिशन’ ने ‘अंतर्राष्ट्रीय नशारोधी दिवस’ की पूर्व संध्या पर जारी निदानात्मक-शोध (Prognostic-Research) रिपोर्ट में इस तथ्य को उजागर किया गया है कि ‘अंतर्निहित व्यक्तित्व-विकार व मनोरोग’ ही विश्व समाज को तेजी से ले जा रहा है‘नशाखोरी’ की तरफ |
डॉ. आलोक मनदर्शन' ने नशाखोरों की अपने व्यक्तित्व-विकारों व मनोरोगों के प्रति अनभिज्ञता को ‘अंतर्दृष्टि-शून्यता’ ( Insight-Blindnesss ) के रूप में परिभाषित किया है | जिसके कारण लोग अपने बनाये तर्कों के आधार पर अपने नशाखोरी की लत को सही ठहराने की कोशिस करते है | जबकि सच्चाई यह है कि ऐसे लोगों का ‘अंतर्निहित व्यक्तित्व-विकार व मनोरोग’ ही आगे बढ़ते-बढ़ते‘नशाखोरी’ का रूप ले लेता है |
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