शनिवार, 15 दिसंबर 2012

किछौछा शरीफ़ - महान सूफी हज़रत मखदूम अशरफ सिमनानी

पहले यह पवित्र स्थान फैज़ाबाद जनपद में था मगर अब अकबरपुर (अम्बेडकर नगर) ज़िले के अंतर्गत आता है। किछौछा शरीफ़ की ज़ियारत करने के लिए फैज़ाबाद और अम्बेडकर नगर दोनों स्थानों से परिवहन निगम की बस या अपनी सवारी से जाया जा सकता है। किछौछा बसखारी के निकट है, जहाँ हर धर्म हर मजहब के लोग अपनी-अपनी मुरादें पूरी कराने पहुंचते हैं। विदेशी भी काफी तादाद में वहाँ पहुँचते हैं। लोग बड़े आदर के साथ किछौछा-शरीफ़ को राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय एकता का केन्द्र मानते हैं।
जनाब असलम वसीम के अनुसार हज़रत मखदूम अशरफ़ सिमनानी का वास्तविक नाम ओहउद्दीन था। आप का जन्म 1387 ई० तदनुसार 707 हिजरी को सिमनान राज्य (ईरान) में हुआ था। उस समय सिमनान ईरान की राजधानी हुआ करती थी पर आज सिमनान ईरान का एक शहर है। आप के पिता का नाम खुदैजा बीबी था। उन्होने लगभग 35 वर्षों तक सिमनान राज्य पर हुकूमत की। सन 1399 में अपने पिता की मृत्यु के बाद आप ने 1348 में सिर्फ 13 वर्ष की अवस्था में सिमनान राज्य की सत्ता संभाली। 12 साल तक हुकूमत करने के बाद आपने अपने छोटे भाई को हुकूमत सौंप कर फ़कीरी ले ली। आप जीवन भर अविवाहित रहें। आपने अपनी आयु के तीस वर्ष पैदल ही विश्व यात्रा करते हुए सूफ़ी मत के सिद्धांतों और उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया। आपके पीर (गुरु) हज़रत अलाऊलहक पंडवी थें (पंडवा पश्चिम बंगाल के मालदा ज़िले में पड़ता है।) निर्माण कराया था। आप लगभग सौ वर्ष तक जीवित रहें। आपका देहावसान 28 मोहर्रम 808 हिजरी तदनुसार सन 1487 को दोपहर 2 बजे हुआ था। आपने अपना उत्तराधिकारी व सज्जादा नशीन हाज़ी अब्दुर्ररज़्ज़ाक नुस्लेन्न को बनाया। किछौछा शरीफ का आस्ताना उत्तर प्रदेश के जनपद अम्बेडकर नगर (अक़बरपुर) तहसील टांडा के राजस्व ग्राम रसूलपुर दरगाह में स्थित है जो नगर पंचायत अशरफपुर किछौछा में शामिल है।
सुल्तान फ़िरोज़शाह के शासनकाल में हज़रत मखदूम अशरफ ने भारत की धरती पर अपने मुबारक़ कदम रखे थे। आप एक उच्च कोटि के साहित्यकार भी थे। उनकी लिखी पुस्तक एखलाक और तसब्बुफ को उर्दू गद्द्य की पहली पुस्तक मानी जाती है। उसके अलावा आपने सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक पुस्तकें भी लिखीं। मलिक मुहम्मद जायसी ने उन्हे अपना आध्यात्मिक गुरु मान कर अनेक रचनाएँ लिखीं। हज़रत मखदूम अशरफ के उपदेश आज भी हमारे समाज को एकता के सूत्र में बांध कर ज़िंदगी की राह आसान कर रहे हैं। यह हमारे फैज़ाबाद और पड़ोसी नए जनपद अम्बेडकर नगर (अक़बरपुर) के लिए फ़ख्र की बात है। यूँ तो फख्र की बात पूरे इंसानी क़ौम के लिए है।
(दैनिक जनमोर्चा से साभार : सुदामा सिंह) 

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

उपद्रवियों का कोई मजहब नहीं होता

फैज़ाबाद, 2 दिसम्बर 2012 ‘‘उपद्रवियों का कोई मजहब नहीं होता और साम्प्रदायिकता का कोई धर्म नहीं। सभी प्रबुद्ध नागरिकों को सद्भाव का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। फैज़ाबाद की साम्प्रदायिक घटनाओं के बाद बुद्धिजीवियों में एक तरह की इख़लाकी पस्ती दिखायी पड़ती है। हमें इस निराशा से निकलकर धर्मनिरपेक्षता और सद्भाव के लिए संघर्ष करना चाहिए।’’ ये विचार स्थानीय तरंग सभागार में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित भारतीय परिवेश में सद्भावना और धर्मनिरपेक्षता की प्रासंगिकता और हमारे दायित्व विषयक संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए लेखक एवं संपादक आफताब रजा रिजवी ने व्यक्त किये। यह संगोष्ठी फैज़ाबाद में पिछले दिनों हुई साम्प्रदायिक घटनाओं के बरक्स सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता के प्रचारप्रसार के लिए आयोजित की गयी थी।
      इससे पहले गोष्ठी का प्रारम्भ करते हुए सम्पूर्णानन्द बागी ने कहा कि हमारा देश अपनी प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष है, मगर थोड़े से उपद्रवियों को चलते धर्मसमभाव का ताना-बाना अव्यवस्थित हो जाता है। शहर के जाने-माने शायर साहिल भारती ने कहा कि सद्भावना पैदा करना प्रशासन की भी ज़िम्मेदारी है जबकि प्रशासन ने ही फैजाबाद में लापरवाही दर्शायी है। युवा कवि विशाल श्रीवास्तव ने यह बताया कि साम्प्रदायिकता के तत्व भारतीय समाज में पहले से सक्रिय रहे हैं। वैश्वीकरण के प्रारम्भ होने के बाद फाँसीवाद का उदय बिल्कुल नये तरीके से हुआ है। मशहूर शायर इस्लाम सालिक ने कहा कि इन साम्प्रदायिक घटनाओं में प्रशासन भी शामिल हो जाता है जिससे साम्प्रदायिकता की योजनाबद्ध घटनाएँ और अफवाहें खतरनाक रूप ले लेती हैं। समाजवादी पार्टी के नेता और एडवोकेट मंसूर इलाही ने कहा कि साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोग कम हैं मगर उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही नहीं होती जिसके कारण साम्प्रदायिक तत्वों का मन बढ़ जाता है। उन्हें सख्त सजा दिलायी जानी चाहिए। बस्ती से आये राजनारायण तिवारी ने फैज़ाबाद की घटनाओं को शर्मनाक बताते हुए कहा कि वैश्वीकरण के आने के साथ ही साथ साम्प्रदायिकता बढ़ी है। एटक के नेता जमुना सिंह ने बाजारवाद और उसकी संस्कृति को साम्प्रदायिकता के उभार के लिए जिम्मेदार माना।
      भारतीय प्रेस कौंसिल के सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार सम्पादक शीतला सिंह ने कहा कि 2012 की स्थितियाँ 1992 की स्थितियों से अधिक खतरनाक और निराशा पैदा करने वाली हैं। आज राजनीति साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ा रही है । दुख की बात यह है कि पढ़ा-लिखा समाज भी कम्युनल होता जा रहा है। शहर के जाने माने बुद्धिजीवी गुलाम मोहम्मद ने कहा कि हमारे दौर में अवांक्षित तत्व सबल होते जा रहे है। लोगों को तोड़ने वाले नहीं, जोड़ने वाले तत्वों का साथ देना चाहिए। शिक्षक नेता अशोक कुमार तिवारी ने फैजाबाद की घटनाओं को एक राजनीतिक साजिश बताते हुए सद्भावना और भाईचारे कायम रखने में सहयोग करने के लिए बुद्धिजीवियों को आगे आने के लिए कहा। राजनायण तिवारी ने कहा कि फैज़ाबाद की सारी घटनाओं के पीछे स्पष्टतः चुनावी राजनीति थी। युगलकिशोर शरण शास्त्री ने साझी संस्कृति और साझी विरासत को बचाने की बात कही।
      सुपरिचित पत्रकार सुमन गुप्ता ने कहा कि 1992 की घटनाओं के बाद लेाग निश्चिन्त हो गये कि भविष्य में फैज़ाबाद में साम्प्रदायिक घटनाएँ नहीं होंगी। मगर साम्प्रदायिकता नये तरीके से सामने आयी है। धर्म को अपने साथ लपेटने वाली राजनीति के तहत उपद्रवियों को सजा नहीं मिलती और उनका हौसला बुलन्द हो जाता है। कामरेड रामतीर्थ पाठक ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि वामपंथी हमेशा से साम्प्रदायिकता का विरोध करते रहे हैं। हर धर्म के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को धार्मिक विकृतियों और साम्प्रदायिकता का विरोध करना चाहिए। गोष्ठी का संचालन कर रहे डॉ रघुवंशमणि ने कहा कि इस तरह के कार्यक्रमों को लेकर जनता के बीच जाने की आवश्यकता है।
      गोष्ठी मे यह संकल्प लिया गया कि साम्प्रदायिक सद्भाव के ये कार्यक्रम दूर-दराज के गांवों तक ले जाये जायेंगे। गोष्ठी के अन्त में भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के महासचिव रामजीराम यादव ने गोष्ठी में आये अतिथियों को धन्यवाद देते हुए आभार व्यक्त किया। गोष्ठी में कामरेड अतुल कुमार सिंह, कामरेड रामप्रकाश तिवारी, हृदयराम निषाद, इर्तिजा हुसैन, सईद ख़ान, अयोध्या प्रसाद तिवारी, रामकुमार सुमन, बद्रीनाथ यादव, महंथ दिनेश दूबे, मुन्नालाल सहित सैकड़ों लोग उपस्थित थे।

रविवार, 2 दिसंबर 2012

विश्व एड्स दिवस पर जानिये एच.आई.वी./एड्स के मनोदुष्प्रभाव

विश्व एड्स दिवस पर जानिये एच.आई.वी./एड्स के मनोदुष्प्रभाव : "पोस्ट डायग्नोसिस डिप्रेशन " व "एड्स डिमेंशिया" ‘विश्व एड्स दिवस’ पर ‘एच.आई.वी./एड्स’ के शारीरिक लक्षणो एवं बचाव के तौर तरीको की प्रचार-प्रसार माध्यमो से भरमार देखने को मिलती है | लेकिन इस बीमारी के छिपे-रुस्तम व अनछुए मनोदुष्प्रभाव को मरीज़ तथा उसके परिजनों को जागरूक करने के उद्देश्य से मनदर्शन-मिशन द्वारा उजागर कर दिया गया है | भारत की पहली टेलीफोनिक साइकोथिरैपी सेवा +919453152200 शुरू करने वाली ‘मनदर्शन-मिशन’ के अनुसार सामान्यतयः, मानसिक विछिप्त या मनोरोगी उसके मष्तिष्क के मनोरसायानो ( न्यूरो-ट्रांसमीटर्स ) में उत्पन्न असंतुलन का परिणाम होते है | परन्तु, एच.आई.वी./एड्स के मरीजो में इस वायरस के उनके मस्तिस्क में प्रवेश कर जाने से उनकी सामान्य मानसिक प्रक्रियाये इस प्रकार दुष्प्रभावित हो जाती है जिससे कि वे पागलपन जैसी असामान्य स्थिति में आ सकते है | इसे "एड्स डिमेंशिया" कहते है | साथ ही एच.आई.वी./ एड्स का मरीज़ एच.आई.वी. जाँच के पॉजिटिव आते ही उसके मन में "सेकेंडरी डिप्रेशन" या "पोस्ट डायग्नोसिस डिप्रेशन" (पी.डी.डी.) आ जाने की प्रबल संभावना हो जाती है जिससे कि उसका मन अपराध बोध,हताशा,निराशा व कुंठा जैसे नकारात्मक मनोभावों से घिर सकता है | मरीज़ को इस अवसाद ग्रसित मनोदशा से निकालने के लिए डॉ. मनदर्शन ने एच.आई.वी./ एड्स पीड़ित मरीज़ की समाज में पूर्ण स्वीकार्यता एवं भावनात्मक प्रोत्साहन पर विशेष जोर दिया है जिससे कि मरीज़ का पुनः मनोसामाजिक पुनर्वास हो सके और वह आत्मसम्मान के साथ समाज की मुख्य धारा में समाहित होकर अपने मनोशारीरिक उपचार में सकारात्मक ढंग से सहयोग कर सके |

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

आतंक------------------ यानी फांसी


मुम्बई हमले के आरोपी पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब को तो हमने फांसी दे दी पर अपने ही देश में रह रहे उन आतंकियों हम कब फांसी देंगे जो आये दिन अपने ही देश में अपना आतंक फैलाते हैं जिसकी वजह से देश के अमन पसंद आम नागरिकों का जीना अपने ही देश में दूभर  होता है.
क्या किसी व्यक्ति द्वारा सिर्फ सामूहिक नरसंहार वह चाहे जिस रूप में हो , ही किया जाना आतंकवाद है ? हाँ ! परन्तु उसके साथ साथ अपने पैसे के बल पर व अपने ताकत के बल पर एक आम आदमी को परेशान करना जिसमे हत्या , लूट , बलात्कार , डकैती , भयभीत करना , आदि अपराध भी किसी आतंक से कम नही है , परन्तु हमारे देश का लचर कानून अपनी वेवजह की लाचारी के चलते ऐसे आतंकियों को फांसी पर लटकाने से पता नही क्यों पीछे हटता है !
आज हमारे देश में ही कितने ऐसे आतंकी है जो खुले आम अपनों को ही अपने साये में जीने को मजबूर कर रहे है , जिसके कारण हमारे देश के नागरिकों में अपने ही घर में असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है .
हमारे देश की बिभिन्न अदालतों द्वारा आज तक पता नही कितने आतंक फैसले वालों को फंसी की सजा सुनाई जा चुकी है परन्तु फंसी पर आज तक कोई लटकाया नही गया क्योंकि किसी न किसी कारण वश वह बाइज्जत बरी हो गया या फिर उसकी सजा विचाराधीन हो गयी.
मेरे अनुसार विदेशी आतंकी और देशी आतंकी में सिर्फ इतना फर्क है की विदेशी आतंकी लगभग साल - दो साल में एक साथ सैकड़ो बेगुनाहों को मरता है और देशी आतंकी रोज पूरे देश में अलग - अलग जगहों पर सैकड़ों बेगुनाहों को मारता है.
अब आप ही बताइये की दोनों में क्या फर्क है ?
अगर हमें अपने देश में विदेशी आतंकियों को रोकना है तो हमें सबसे पहले अपने देश के आतंकियों ( वो चाहे छोटा आतंक फैलाता हो या बड़ा ) को फांसी पर लटकाना होगा जिससे हमारे कानून  की इस कड़ाई से देश में रहने वाले आतंकियों के साथ - साथ विदेशी आतंकियों को भी एक बार आतंक फैलाने से पहले सौ बार सोंचना पड़े.
इसमें कोई संदेह नही की यह सबसे कठोर दंड है लेकिन इस दंड को बिना देरी के दिया जाना चाहिए अगर इसमें देरी होती है तो इसका जो सख्त सन्देश है वह अपराधी व अपराधी की मानसिकता के लोगों तक नही पहंच पायेगा.
मेरा मानना है की आज अगर हम अपने घर के आतंकियों से अपने घर को सुरक्षित रखने में कामयाब हो जाते है तो विदेशी कसाब जैसों को हमारे घर पर निगाह उठाने से पहले लटकता हुआ फांसी का फंदा जरूर नजर आयेगा जो उनके दिलों दिमाग से हमारे देश का नाम मिटाने पर उनको मजबूर करेगा .
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