अयोध्या और फैजाबाद जिन्हें गंगा-जमुनी तहज़ीब
का जुड़वा शहर भी कहते हैं, पिछले आधी सदी के राजनीतिक इतिहास में धुर अंतर्विरोधी मूल्यों का एक
महत्वपूर्ण प्रतीक है। लेकिन अफसोस कि राजनीति और मीडिया ने इस शहर के सिर्फ मानव
विरोधी अन्धकारमय मूल्यों में ही दिलचस्पी दिखाई और ये जुड़वा शहर पूरे देश में भय
और आतंक का पर्याय बन गए। अभी हाल ही में इसी शहर की एक शख्सियत पर केन्द्रित
डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘‘राइजिंग फ्रॉम दि ऐशेज’’ इस अंतर्विरोध में समय के दूसरे छोर की कहानी है। कहानी के केंद्र में हैं
मो॰ शरीफ यानी ‘शरीफ चचा’।
शरीफ चचा एक साइकिल मैकेनिक हैं। लेकिन ये
सिर्फ उनकी जिंदगी का आर्थिक जरिया है, मकसद नहीं। फैजाबाद के खिड़की अली बेग मुहल्ले के रहने वाले शरीफ चचा
लावारिस लाशों के वारिस हैं। यानी ऐसी लाशें जिनका कोई वारिस नहीं होता। वे उन्हें
उनके धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करते हैं। ये काम वे पिछले अठारह सालों से
अनवरत कर रहे हैं और अब तक लगभग सोलह सौ ऐसी लाशों को उन्होंने मानवीय गरिमा दी।
जो हर मनुष्य का मानवीय अधिकार है। लेकिन शरीफ चचा के ऐसा करने के पीछे एक बहुत
मार्मिक कहानी भी है जो व्यवस्था की संवेदनहीनता से उपजी है। दरअसल, अठारह साल पहले शरीफ चचा के बेटे मो॰ रईस की जब वो सुल्तानपुर गया था
किसी ने हत्या करके लाश फेंक दी थी, जिसे कभी ढूंढा नहीं जा
सका। तभी से शरीफ चचा ऐसी लावारिश लाशों को उनका मानवीय हक दिला रहे हैं। वे कहते
हैं ‘हर मनुष्य का खून एक जैसा होता है, मैं मनुष्यों के बीच खून के इस रिश्ते पर आस्था रखता हूं। इसलिए मैं जब तक
जिंदा हूँ किसी भी मानव शरीर को कुत्तों द्वारा नुचने या हास्पिटल में सड़ने नहीं
दूंगा।’ फैजाबाद के वरिष्ठ पत्रकार सी॰ के॰ मिश्रा कहते हैं ‘शरीफ चचा के साथ जो त्रासदी हुई उसमें सामान्यतः लोग दुनिया और समाज से
नफरत करने लगते हैं। लेकिन चचा ने इसके विपरीत राह दिखाई। उन्होंने लावारिस लाशों
को गरिमा प्रदान करने को ही अपनी जिन्दगी बना ली। क्योंकि उन्हें लगा कि ऐसा करने
से उनके बेटे को जन्नत नसीब होगी।’ शरीफ चचा अपने इस काम में सुबह की नवाज पढ़ने के बाद ही लग जाते हैं। वे
हास्पिटल, मुर्दा घर और रेलवे
ट्रैकों पर ऐसी लाशों की खोज में निकल पड़ते हैं। चचा के इस काम में स्थानीय लोग
भी उनका हाथ बंटाते हैं। ज्योति कहते हैं ‘रात या दिन जब भी
हम लोग चचा को कोई लाश ले जाते देखतें हैं, उन्हें अपनी
गाड़ी दे देते हैं। वहीं मो॰ फैय्याज जो मुस्लिम लाशों का जनाजा पढ़ाते हैं बताते
हैं ‘चचा इन लावारिस लाशों की किसी अपने की लाश की तरह ही
देखभाल करते हैं।’ वहीं शरीफ चचा हिंदू लाशों को खुद अपने
हाथों से सरयू किनारे मुखाग्नि देते हैं। अयोध्या के प्रतिष्ठित संत सत्येंद्र दास
कहते हैं ‘मानवता को प्रतिष्ठित करने के इस महान काम के लिए
शरीफ चचा को ‘तुलसी स्मारक भवन’ में
सम्मानित किया गया है और उनकी इज्जत हर तबके के लोग करते हैं।’ बहरहाल, सूफी संतों की अयोध्या को उसकी वास्तविक
पहचान देने की कोशिश में लगे शरीफ चचा की बढ़ती उम्र लोगों को मायूस भी करती है।
डा॰ करुणाशील पूछते हैं ‘कल जब चचा नहीं रहेंगें तब उनके इस
काम को कौन आगे बढ़ाएगा?’ अयोध्या की पहचान केवल
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के लिए ही नहीं है,बल्कि वह
कई ऐसी शख्सियतों को भी अपने में समेटे हुए है जिसकी तरफ दंगों की राजनीती करने
वालों और उनका मुखपत्र बन चुकी आज की मीडिया का ध्यान नहीं जाता।
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