गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

साज़िशों के बीच धधकता शहर

25 अक्तूबर 2012, आज अल्सुबह बादल रोए और शाम को शहर रो रहा है, बहुत रो रहा है। गंगाजमुनी तहज़ीब तंग गली में फफ़क-फफ़क कर इस तरह रो रही है कि मैं भी अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। वह अपना रोना भूल कर मेरे आँसू अपने मुक़द्दस आँचल से पोंछते हुए जैसे कहती है कि जिसके घर शीशे के बने होते हैं वे दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं मारा करते हैं
अचानक उधर चौक से रिकाबगंज की तरफ जाती खासमखास सड़क चीख पड़ी तो मैं उधर भागता हूँ। वहाँ का सीन देख कर कलेजा मुँह को आ जाता है और दिल तार-तार हो जाता है। सजी-सँवरी और कुछ देर पहले तक शोख़ अदाओं से हरदिल अज़ीज़ दुकानें आग के शोलों से घिरी दिल दहलाने वाली चीख-पुकार कर रहीं हैं और कुछ निहाएत वहशी लोग कहकहे लगा कर शहर को नापाक करते दिखाई दे रहें है।
अब मेरे नर्म-मिज़ाज दिल के समझ मे आ रहा है कि बेचारगी की फटी चादर ओढ़े गंगा-जमुनी तहज़ीब उस गंदी गली में बैठी क्यों फफक रही है?

समझते देर नहीं लगी कि किसी की बर्बादी पर हँसने वालों का कोई ईमान-धर्म नहीं होता, वे या तो किसी की खुशी को बर्दाश्त नहीं करते हैं या वे किराये के टट्टू होते हैं जो थके-हारे राजनीतिज्ञों द्वारा खरीदे जाते हैं। जिनको अमनपसंद शहर से कोई सरोकार नहीं होता और न विरासत में मिली गंगा-जमुनी तहज़ीब से। मैं वर्षों से देखता चला आ रहा हूँ कि इस शहर में हर साल बड़ी शिद्दत से होली, दिवाली, दुर्गापूजा और ईद-बकरीद मनाई जाती रही है। अमन के खूबसूरत आशियाने के नीचे हर धर्म हर मजहब के लोग आपसी भाईचारे के तराने छेड़ा करते थे। आश्चर्य है कि इस साल क्या हुआ जो एक अनोखी तहज़ीब के तट पर बसा शहर धूँ-धूँ कर के जल रहा है और आग बुझाने वाले तमाशबीन बन बैठे। जैसे किसी रोम के जलने पर नीरो बंसी बज़ा रहा था। सुबह तक भाई-भाई की तरह एक दूसरे को गले लगा रहे थे, पर सूरज के ढलते ही एक दूसरे का गला काटने पर आमादा दिख रहें हैं, आखिर क्यों? क्या सरयू में अचानक सुनामी का कहर बरपा हो गया? क्या आज सचमुच शहर के इतिहास के सुनहरे वर्क के झुलसने पर बदनुमा दाग दिखा कर आने वाली पीढ़ी को गुमराह करना चाहती है? हे ईश्वर इस अमनपसंद शहर को ऐसी सज़ा न दे वरना सचमुच रिश्ते दागदार हो जायेंगे।

इसमें कोई शक नहीं कि चाक-चौबन्द का ढोल पीटने वाले प्रशासन से भी कहीं न कहीं चूक हुई है या भूखी-नंगी जनता जो महँगाई की मार और घोटालों के खिलाफ इंकलाब करना चाहती है, उसका ध्यान बाँटने के लिए यह सब प्री-प्लांड किया गया हो। क्योंकि सियासतदानों को अक्सर कहते सुना जाता है की सियासत में सबकुछ जायज हो सकता है। आज बेपनाह भीड़ में धधकता हुआ रमफेरवा और अपने लंगोटिया यार मीर साहब के प्यारे शहर का जलना भी जायज़ सोचा गया होगा। बहरहाल अपने बहत्तर सालों की डिक्शनरी में ऐसे बदनसीब हादसे को नहीं पाया।

लेकिन खुदा को हाज़िर-नाज़िर मान कर बड़े यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि लाख चाहने पर भी हमारे रिश्ते कभी नहीं टूट सकते हैं क्योंकि यक़ीनन हमारे पूर्वजों के पूर्वज एक थे। आज जो कुछ हुआ किसी गंदी सी गली में इस शहर की गंगा-जमुनी तहज़ीब ख़ाला का सुबुकना लाज़िमी है।

कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि अभी असत्य पर सत्य की विजय के नाम पर लंकापति रावण को जलाया गया है। हो सकता है कि आय से अधिक धन कि बुनियाद पर तामीर हुई सोने की लंका के जलने और अपने परिवार के दमन का बदला लेने के लिए रावण, अहिरावण, कुंभकर्ण, मेघनाद ने मुखौटे बदल कर भीड़ में घुस गए होंगे और इस मुक़द्दस शहर को जलाना शुरू कर दिया होगा। कुछ भी हो मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जा सकती। इस शहर की धड़कन कभी बंद नहीं हो सकती है। अपना शहर और अपने शहर के हर धर्म व मजहब के लोगो के रिश्ते मज़बूत दर मज़बूत होते रहेंगे। इस इम्तहान में हमारा-फैज़ाबाद कामयाबी की बुलंदी पर एक दिन ज़रूर पंहुचेगा। उनके नापाक इरादों को कभी यहाँ के समझदार बाशिंदे पूरे नहीं होने दे सकते हैं। यक़ीनन।

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