शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

अपनी साझी संस्कृति को बचाइये !

फैज़ाबाद में दुर्गापूजा के अन्तिम चरण में जिस प्रकार की शर्मसार करने वाली घटनाएं घटी हैं, वे निहायत ही गंभीर हैं। दो समुदाय आपस में टकराये, मारपीट की, और दुकाने जलायी गयी। जैसा कि अक्सर होता है इन घटनाओं के बाद लोग एक दूसरे पर आरोप लगाए और सारा माहौल तनावपूर्ण हो जायेगा। कुछ लोग इसमें साम्प्रदायिक हिसाब-किताब लगायेंगे और अपना उल्लू सीधा करेंगे। फिर राजनीतिक बगुले अपना कूटनीतिक ध्यान साधेंगे। लेकिन यह एक सच है कि फैज़ाबाद जैसे साम्प्रदायिक सौहार्द वाले शहर में ये घटनाएं बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं। हमारी धर्मसमभाव और धार्मिक सहिष्णुता की संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार की घटनाएँ बेहद चिन्ता का विषय हैं।
धार्मिक त्यौहारों के ये अवसर अक्सर कुछ लापरवाही और नासमझदारी के कारण तनाव के मौकों में बदल जाते हैं। धार्मिक लोगों में इधर सहिष्णुता घटती ही जा रही है, वे किसी भी धर्म के हो सकते हैं। अब वे बिना सोचे-समझे नाराज होते हैं और उन्माद की ओर चले जाते हैं। इसलिए कुछ ऐसी जरूरी बातें जरूर हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
सबसे जरूरी बात यह है कि हम एक दूसरे के धर्म का सम्मान करें और ऐसी कोई बात न करें जिनके कारण दूसरे समुदाय के लोगों को कष्ट पहुँचे। उदाहरण के लिए दुर्गापूजा के पण्डालों में अक्सर ऐसे गीत बजाये जाते हैं जो बेहद साम्प्रदायिक और दूसरों को कष्ट पहुँचने वाले हैं। इन दिनों पूरी दुर्गापूजा के दौरान राम का मंदिर बनाने के संकल्प वाला गीत लोग बजाते रहे। जाहिर है कि इससे मुस्लिम धर्म मानने वाले लोगों को कष्ट पहुँचना ही था। जो बात विवादित है और उच्चतम न्यायालय की विषयवस्तु है, उसे लेकर गीत बजाना जरूरी नहीं। फिर एक गाना यह भी बज रहा था कि जिस हिन्दू का खून न खौले…’। इस तरह के गीतों को बज़ाना बहुत उचित नहीं है। कारण यह कि किसी धार्मिक त्यौहार में किसी राजनीतिक दल का एजेण्डा आगे बढ़ाना धर्म को संकीर्ण करना है। कहना तो यह चाहिए कि यह धर्म का अपमान है। खासतौर पर हिन्दूधर्म का जो अपने को उदार और सहिष्णु कहता है। वास्तव में यह एक तरह का परपीड़न है जिसे धर्म की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा भी हैः
परहित सरिस धर्म नहिं भाई। परपीडा सम नहिं अधमाई।।
इस तरह के गीतों के बजने और राजनीतिक एजेण्डे के सामने लाये जाने का कारण यह है कि दुर्गापूजा समितियों पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का प्रभुत्व है। वे अपने राजनीतिक कार्यक्रमों के एक अंग के तहत दुर्गापूजा का भी आयोजन करते हैं। दुर्गापूजा इस अर्थ में उनके लिए सिर्फ एक धार्मिक कार्यक्रम नहीं है। मगर उन्हें भी कम से कम इस बात का तो ध्यान रखना चाहिए कि किस तरह की बातों से शान्ति भंग हो सकती और तनाव पैदा हो सकता है। लेकिन सबसे बड़ी आपत्तिजनक बात यह है कि प्रशासन इन सभी मामलों में महज एक मूकदर्शक बना रहता है। न तो वह शोर-शराबे पर नियंत्रण करता है और न ही अन्य लंपटतापूर्ण व्यवहारों पर जो कि दुर्गापूजा के दौरान आम हो जाते हैं। पुलिस की उपस्थिति भी ऐसे मौकों पर लगभग शून्य रहती है। जबकि ऐसे मौकों पर उन्हें अधिक दिखायी देना चाहिए। प्रशासन की उपस्थिति के अहसास से भी बहुत सी अनहोनी घटनाएं नहीं हो पाती हैं। प्रशासन की इस अनुपस्थिति का फायदा शरारती और गैरसामाजिक तत्व उठाते हैं।
फिलहाल अभी आगे बहुत से त्यौहार हैं। विजयदशमी और बक़रीद है। इसलिए प्रशासन, धार्मिक लोगों और प्रबुद्धजनों को अपनी महत्वपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिकाओं में तत्पर हो जाना चाहिए। फैज़ाबाद शहर अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता के लिए जाना जाता है। इस संस्कृति का उदाहरण दूर-दूर तक दिया जाता है। इस आदर्श संस्कृति पर कोई आँच नहीं आनी चाहिए। यह फैजाबाद के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपका लेख अभी अभी पढ़ा .सबसे पहले एक भूल की तरफ आपका ध्यान खींचना चाहूँगा वह ये की झगड़े में दोनों समुदाय के लोग शामिल थे .ऐसा नहीं था .उस दिन जिस तरह से चुन चुन कर अल्पसंख्यकों की दुकाने जलाई गयीं तथा नबाब रजा हसन खान मस्जिद के भीतर जाकर तोड़ फोड़ की गई उससे जाहिर है की मामला पूरी तरह एकतरफा था .उलटे अल्पसंख्यक समुदाय ने जिस संयम का परिचय दिया वह काबिले तारीफ है .सबको पता है की छेड़खानी दारू पिए भक्तों ने की थी .लड़की के घर वालों के विरोध करने पर उनकी पिटाई और पथराव भी इन्ही भक्तों की करतूत थी .इसे सांप्रदायिक रंग तो बाद में इन्ही भक्तों के प्रायोजकों ने दिया जिनका जिक्र आपने लेख में किया है .अफवाहें चौतरफा हैं इसलिए तथ्यों का दुरुस्त होना जरूरी है .जिला प्रशासन ,खुफिया तंत्र ,डी जी पी पुलिस ही नहीं हिंदुस्तान अख़बार भी यही कह रहे हैं .हो सकता है ये तात्कालिक प्रतिक्रिया में निकले ईमानदारी के शब्द हों जो कल को सत्ता प्रतिष्ठान के रण कौशल में बदल दिए जाएँ पर हम आप जैसे लोग किस भय या लालच से इनके झूठ तंत्र में फंसें ? बाकि सब ठीक है .काश आपकी अपील जितना ही मासूम ये उन्मादी भी होते .अभी अभी फोन पर बदहवास सूचनाएँ आ रही हैं इसलिए इति.

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  2. अफ़वाहे अफ़वाहों को जन्म देती हैं। इनसे भी बचने की ज़रूरत है। फ़ैज़ाबाद में 6 दिसंबर 1992 की घटना के बाद कुछ दिनों ऐसा ही माहौल बना था। उसपर एक कहानी- 'डरे हुए लोग' - मैंने लिखी थी। आज पुनः उसे अपनी वाल पर पोस्ट कर रहा हूँ। हमारे मित्र देख सकते हैं । सकारात्मक माहौल बनाए जाने की इस वक़्त नितांत आवश्यकता है।

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