शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

समझ–समझ कर भी न समझे

आजकल कुछ माहौल ऐसा गरमाया हुआ है कि, चाहे पान मसाला सूखे मुँह में झोंकने वाले हों या चरमराती बेंच पर बैठ कर सपरेटे दूध की बासी चाय की चुस्की लेने वाले लोग, सब के सब शहरों में हुए आगजनी व दंगों की बातें किस्सा-ए-तोता-मैना की तरह सुन-सुना रहे हैं। इसके अलावा दूसरी कोई बात ही नहीं। कोई किसी संप्रदाय विशेष को दोष दे रहा है तो कोई प्रशासन को ही दुशासन बता कर नाकारा साबित करने के लिए दलीलों पर दलीलें पेश करने के चक्कर में अपने को ज़्यादा क़ाबिल समझाने की कोशिश कर रहा है।
अपने लंगोटिया यार जनाब मीर साहब हैं तो सिर्फ चौथी जमात पास मगर ऐसे नाज़ुक मौकों पर बन जाते हैं राजा बीरबल की तरह होशियारों के होशियार। कहने लगे, अमां पहले परिवार वजूद में आया शहर या समाज? समाज का बड़ा रूप ले लिया संसार ने। जनाब, यह  बतलाने की तकलीफ करें की किसके परिवार में तू-तू मैं-मैं या लड़ाई-झगड़े नहीं होते हैं? यही नहीं बल्कि मैंने तो देखा है कि मर-मुक़दमे और खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है। अब मियाँ वह बात अलग है कि जब ऐसे ही किसी बात पर शहर या संप्रदायों के बीच छोटे-छोटे मसलों पर कभी तू-तकार हो जाते हैं तो जनाब तलवारें खिंच जाती हैं और नौबत यहाँ तक पंहुच  जाती है कि किसी अनहोनी का मुकाबला करने की गरज से रखे गए खतरनाक़ असलहों का इस्तेमाल बड़ी बेदर्दी से करते हैं। भूल जाते हैं कुछ देर पहले तक वे भाई, चचा, बहन-बेटी और दादा-दादी सबकुछ लगते थे।
इसी सिलसिले में मेरे कमज़ोर ज़ेहन में एक बात बड़ी मार्के की उठती है। सुन कर हँसेगें। मेरे भाई, मामला कोई बहुत बड़ा नहीं है बल्कि किसी लड़की के सुसराल और मायके का है। एक ही लड़की जब ब्याह कर सुसराल जाती है तो कुछ दिनों बाद उस बेचारी को तरह-तरह के ताने सुनने को मिलते हैं। अलगाओ-बिलगाओ के आरोप का ठीकड़ा उसी के सिर पर फोड़ा जाता है। मगर वही सुसराल वाले अपनी किसी पुत्री की तारीफ़ों के पुल बांधा करते हैं लेकिन जब वह ब्याह करके दूसरे के घर ब्याह रचा कर जाती है तो वही पुत्री निर्दोष और उसके सुसराल वाले बदतमीज़-बदमाश तक कह कर बदनाम किये जाते हैं। मतलब यह कि कोई अपने सोने को खोटा कहने को नहीं तैयार है। देखा जाता है कि इसी मायके और सुसरालवालों के बीच कभी-कभी मार-पीट मर-मुक़दमे तक कि नौबत आ जाती है। वे भूल जाते हैं कि ब्याह के पहले तक रिश्ते बेजोड़ होने से लेकर एक दूसरे की तारीफ़ों के कसीदे पढ़ते नहीं थकते हैं, पर पल के पल में रिश्ते रिस्ते-ज़ख्म में बदल कर नाकाबिले बर्दाश्त हो जाते हैं। वाह री दुनिया, वाह रे ज़माने और ज़माने के तलिमयाफ्ता लोग। इसी को कहते हैं कि लोग समझ-समझ कर भी नहीं समझते है।

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